मंगलवार, 21 मार्च 2017

कुलच्छनी

जब जी चाहे
अनायास ही
कोई मुस्काता फूल
बन जाता, उसकी चोटी की शोभा
लहराते, मचलते भूरे झरने से
बालों में सजते  फूल
चिडाते भैया
पड़ गया नाम भीलनी....

दिनोंदिन बढ़ती
मन में कुढ़ती
मैं क्यों भीलनी?
माँ, बदल दो न नाम मेरा
और सुन हँसते पिता
जंगली फूल सी बढती
भीलनी में
रोज जागती जिज्ञासा
क्या इतनी कठिन होती है
नाम बदलने की प्रक्रिया
अब सब ही क्यों कहते हैं भीलनी?

तभी, एक हवा के झोंके से
प्रकटा प्रेमी
आह प्रिये
तुम स्त्री हो
सुन्दर स्त्री
सब देते बाण
मैं प्रेम दूंगा
न.........मैं नहीं कहूँगा
भीलनी

ओह......तुम समझे हो
इतनी निर्मम भीड़ में
एक तुम अपने से लगते हो
घुमड़ मेघ, बरसने लगा
प्रेम दिन-रैन
भीग नाचती स्त्री
समेट रखने लगी
भीलनी

ये वंश का नाश
कुल का अपमान
क्या मात-पिता के स्नेह का
यही प्रतिकार है?
नहीं....न करो मलिन
मैंने बस प्रेम किया
अपराध नहीं
ओ निर्लज्ज......प्रेम नहीं ये
वासना की भूख
(भूख न जाने किसकी)
मिलकर समाज मिटाता है
दुस्साहस की पराकाष्ठा
मल-मुंह-कालिख
देह निर्वसना
हर एक प्रयासी
आप तृप्त हो
औरत को सबक सिखाता है
सूरज बंद कर लेता आँखें
और पूरी हो जाती
नाम बदलने की प्रक्रिया
विजयी समाज
जाते-जाते
देता जाता है नया नाम
'कुलच्छनी'
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अपराजिता ग़ज़ल

बुधवार, 15 मार्च 2017

सुनो, तुम खुद को रंग लेना.....

सुनो तुम खुद को रंग लेना...
याद है किस रंग में?
मेरे रंग में....
तुम्हे याद है वो लाल रंग? जो गुलाब मुझे तुम देते थे.....
हाँ, वो ही लाल रंग, तुम अपने भाल लगा लेना....
सुनो तुम खुद को रंग लेना....
वो पीली सुनहरी खिलती धूप, जब एक-दूजे को देखा था...
उन मुस्कानों को याद कर, वो रंग सुनहरा सजा लेना....
सुनो तुम खुद को रंग लेना...
सूने-सूने से जीवन में जब हरियाली सी आई थी....
मेरे जीवन में तुम आये थे, तुमने भी तो ज़िन्दगी पायी थी...
उन हरे-भरे लम्हों को जी, तुम उस में खुद को रंग लेना....
सुनो तुम खुद को रंग लेना.....
नीले अम्बर के नीचे हम घंटों बातें करते थे...
कुछ कहते तुम, मैं सुनती थी, कुछ कहती मैं, तुम सुनते थे.....
हाँ, उसी नीली चादर वाले रंग से तुम खुद को रंग लेना....
सुनो तुम खुद को रंग लेना....
 मैं दूर भी हूँ तो क्या?मत रहना तुम बेरंग....
संदल सी खुशबू वाली गुलाबी यादों को जिंदा कर....
तुम खुद ही को रंग कर के, एहसास मेरा भी जगा लेना...
सुनो तुम खुद को रंग लेना.....
अब पूछोगे तुम, क्यों नहीं मैं खुद को रंग लगाती हूँ?
तो सुनो, तुम्हारे हर रंग से मैं कब बिन रंगे रह पाती हूँ?
प्रेम तुम्हारा श्वेत, पवित्र, कोई दाग न इस पर लगने दूँ...
बस यही सोच-सोच मैं अपने सारे फ़र्ज़ निभाती हूँ.....
सुनो, तुम खुद को रंग लेना....
एक श्याम रंग है प्रेम का, इससे पक्का-गहरा कोई रंग नहीं....
हम साथ सदा एक-दूजे के, क्यों हो उदास कि हम संग नहीं?
तुम जितना रंग सको खुद को, बस मुझे समझ के रंग देना.....
सुनो तुम खुद को रंग लेना.....
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अपराजिता ग़ज़ल