सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

प्रणया



तुम्हारी कलाई पर
रेंगती हुई
मेरी अंगुलियाँ
औ- सरकती हुई हथेली
चलती आती है
उर्ध्वाधर
शिखर की ओर
ज्यों नाग जला कोई आता हो
प्रणयाग्नि में फन बिछाए
आ मिले अपनी सर्पिणी के फन सम्मुख
हाँ, हाथों में श्वास नहीं होती
तो भी एक ऊष्मा
पिघला देती है दोनों को
लिपटते वे दोनों
लगने लगते हैं
प्रणय-क्रीड़ा-रत
किसी नाग जोड़े से
और सहसा
बदल जाता दृश्य ये
जब अपने शीतोष्ण पड़ाव से
आ मिलते
सुदूर पूरब से आती
मंद-मलय से मनचाहे
अधर तुम्हारे..........
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अपराजिता ग़ज़ल

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