मंगलवार, 6 सितंबर 2016

मिलना हवाओं में



मैं जा रही हूँ
जा रही हूँ समेटे
तुम्हारी खुशबूयें
तुम्हारी यादें
वो पल
जब मैंने तुम्हे छुआ था
महसूसा था तुम्हें
उँगलियों से अपनी
और तुमने भी
तो सजाया था मुझे
रंगत औ रूप
खुशबूओं से अपनी
जा रही हूँ इसलिए
कि ज़रूरी है जाना?
शायद हाँ......शायद नहीं.....
पता नहीं......
पर तुम उदास मत होना
क्योंकि उदास तो न होऊँगी मैं भी
मैं ले जा रही हूँ
साथ अपने
वो एहसास
वो दिन वो पल
वो मुस्कानें
वो आँसू
तन्हाईयों और रौनक के मेले
ग़ुरबत औ रईसी के
तमाम जज़्बात-लम्हात
समूचे ताज़ा कर
और दिए जा रही हूँ तुम्हे याद अपनी
यूँ भी सदा को जुदा नहीं हो रहे हम
तो तुम सूख न जाना
बहना कल-कल
न मुरझाना
क्योंकि बदलाव तो नियम हैं ज़िन्दगी का
वो कहते हैं न
किसी के जाने से
किसी की ज़िन्दगी नहीं रूकती
तुम्हारी भी न रुके
मेरी भी नहीं रुकेगी
तुम महकना हमेशा की तरह
झूमना
जैसे सदा ही झूमते हो तुम
खिलना
बिखेरना रंग अपने
फलना-फूलना
खुश रहना
मैं भी तो रम जाऊँगी
नए जीवन में अपने
पर भूलूँगी नहीं तुम्हें
जैसे तुम मुझे न भूलोगे
मैं भेजा करुँगी
छुअन अपनी
सुदूर देश से
हवाओं के साथ
भेजूँगी सदाएँ अपनी
और सरगोशियाँ
जैसे अब करती हूँ बातें तुमसे
और किया करुँगी इंतज़ार
तुम्हारे रंगों-खुशबुओं का
और मेरे गीतों पर
तुम्हारी झूमती हरी अंगड़ाईयों का
जो हवा संग तुम फ़िर-फ़िर भेजोगे
औ भेजोगे वो सन्देसे
जिनको मैं तुमसे हवाओं में
चुपके से पूछा करुँगी
चलो...अब चलती हूँ
ख़ुदा हाफ़िज़........
तो नहीं कहूँगी
क्योंकि मिलते रहेंगे अब हम

आज़ाद हवाओं में!
--------------------------------------------
अपराजिता ग़ज़ल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें